डॉ. मयंक चतुर्वेदी
संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने सात अक्टूबर को इजराइल पर फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हरकत अल-मुकावमा अल-इस्लामिया (हमास) के हमले में अपनी एजेंसी के कार्यरत कर्मचारियों की संलिप्तता की जांच की और यह पाया कि अनेक कर्मचारी जोकि मुस्लिम हैं, वे पहले कट्टर इस्लामिक हैं, इतने अधिक कट्टर कि उनके लिए शांति व्यवस्था, मानवीयता या नौकरी से अधिक मुसलमान होना इस अर्थ में मायने रखता है कि यदि उन्हें गैर मुसलमानों (काफिरों) के खिलाफ जिहाद करना पड़े तो वह पहले अपने कर्तव्य नौकरी, मानवसेवा को छोड़कर इस ‘जिहाद’ को करना पसंद करेंगे। इस संदर्भ में जब अपनी जांच के पश्चात ‘यूएन’ पूरे तरीके से आश्वस्त हो गया कि उसके कई कर्मचारी ‘हमास’ का साथ दे रहे हैं। उन्हें अपनी गोपनीय सूचनाएं पहुंचा रहे हैं और इजराइल के ऊपर हुए प्रारंभिक अटैक में इनकी सीधी भागीदारी है, तब उसने उन सभी कर्मचारियों को नौकरी से बाहर का रास्ता दिखा दिया, फिर कुछ दिनों बाद संयुक्त राष्ट्र की इस कार्रवाई की पुष्टि संस्थान के उप प्रवक्ता फरहान हक ने भी की ।
यूएनआरडब्ल्यूए में काम करनेवाले मुसलमान भी हमास को दे रहे थे सहयोग
इस घटना के पूर्व यूएनआरडब्ल्यूए ने इसी तरह के अपने 12 कर्मचारियों को बर्खास्त किया था और सात को प्रशासनिक अवकाश पर जबरन भेज दिया था । यूएनआरडब्ल्यूए यानी शारणार्थी फिलिस्तीनियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत कार्य अभिकरण (United Nation Relife and Work Agency for palestine Refugeesian in the Near East) । वस्तुत: यह कार्याभिकरण इजराइल के निर्माण के दौरान (1948 में) अस्तित्व में आया था। फिलीस्तीनी लोगों को राहत, शिक्षा एवं कल्याण सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 1949 में महासभा के प्रस्तावाधीन एक गैर-राजनीतिक व अस्थायी अभिकरण के रूप में स्थापित किया गया यह संगठन है । यहां ‘यूएनआरडब्ल्यूए’ ने क्या पाया? उसने भी वही पाया जो कि ‘यूएन’ ने इजराइल अटैक में अपने कर्मचारियों के ‘हमास’ को सहायता उपलब्ध कराने के संबंध में पाया था। जिसकी पुष्टि यूएनआरडब्ल्यूए के संचार निदेशक जूलियट तौमा ने भी की। जब इजराइल ने उस पर हुए हमले में यूएनआरडब्ल्यूए के कई कर्मचारियों के शामिल होने का आरोप लगाया था और उसके साक्ष्य यूएनआरडब्ल्यूए को उपलब्ध कराए गए।
इजराइल की ओर से बताया गया था कि कैसे यूएनआरडब्ल्यूए में काम करनेवाले कर्मचारी ‘हमास’ के साथ उसके क्षेत्र में घुसे और इजराइल के लगभग 250 से अधिक लोगों का अपहरण करने में इन लोगों ने आतंकवादी संगठन ‘हमास’ का साथ दिया था । तब फिर स्वयं के आंतरिक निगरानी संस्था, आंतरिक निरीक्षण सेवा कार्यालय में यूएनआरडब्ल्यूए ने गुप्त जांच शुरू की, जिसके निष्कर्ष बहुत खतरनाक रूप से सामने आए, वह यह कि भले ही ये सभी शारणार्थी फिलिस्तीनियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत कार्य अभिकरण में कार्यरत थे, लेकिन इनकी आस्था इस्लामिक शरिया राज में पाई गई, जिसमें कि ये सभी इजराइल को एक बाधा के रूप में देखते हैं । वहीं, इस्लामी हक़ूक़ स्थापित करना इन सभी का मूल मकसद है।
दुनिया भर में इस्लामी हकूक स्थापित करने की सोच रखनेवालों के लिए (काफिर) गैर मुस्लिम नफरत करने लायक
यहां कोई पूछ सकता है कि बांग्लादेश में जो हिन्दू अत्याचार वहां की सत्ता परिवर्तन के लिए उपजे छात्र आन्दोलन का एक दुष्परिणाम है, अब उसका इस यूएन और यूएनआरडब्ल्यूए के बर्खास्त कमर्चारियों से क्या संबंध है? तो यह संबंध बहुत गहरा है; इसकी सबसे बड़ी गहराई कर्मचारियों को सबसे पहले उनका दीनी होना करार देती है और इसलिए उसका पहला फर्ज अमल करती है कि गैर मुसलमानों के खिलाफ हो रहे जिहाद में साथ दो। यही कार्य सबसे ऊपर रखने की मानसिकता उनकी बनाती है। यहां आप स्वयं ही इसे होता देख सकते हैं कि जिस ‘शरणार्थी फिलिस्तीनियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत कार्य एजेंसी’ का गठन ही मानवता की सेवा करना रखा गया, उस संगठन के कर्मचारी जोकि मुसलमान हैं, उन्होंने क्या किया? उनमें से कई ऐसे निकले, जिनके लिए इस्लाम से ऊपर कुछ भी नहीं, उनकी नौकरी और मानव सेवा भी नहीं है। यदि उनके लिए (काफिर) गैर मुस्लिम नफरत करनेलायक है, तो वह है । इसमें कोई किंतु-परन्तु नहीं है।
बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस की सरकार भी इस्लामिक राज स्थापित करने की राह पर
बांग्लादेश में भी क्या हो रहा है! यही कि जो गैर मुसलमान हैं, विशेषकर वहां सबसे अधिक संख्या में रहनेवाले अल्पसंख्यक हिन्दू , उन्हें निशाना बनाया जाए। जो निशाना बना रहे हैं वे सभी मुसलमान हैं, उनको दी गई तालीम (शिक्षा) ने उन्हें यही सिखाया है कि जो इस्लाम पर अमल न फरमाए, उसे तब तक सताएं जब तक वह इस्लाम को न कबूल कर ले, यहां तक कि उस काफिर का ‘सर तन से जुदा’ करने तक की शिक्षा उन्हें दी गई है। अब उनका जो बचपन से माइंडसेट बना है, वे उसी नफरती मानसिकता से ही आज हिन्दू अत्याचार कर रहे हैं। यह आप बांग्लादेश में नई अंतरिम मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार के गठन के पश्चात भी देख सकते हैं । वहां जिस अबुल फैयाज खालिद हुसैन को धार्मिक मामलों के मंत्री का जिम्मा सौंपा गया है और सरकार में उसे अतिरिक्त सलाहाकार बनाया गया है, आखिर उसकी मूल पहचान क्या है? यही है ना कि वह एक घोर इस्लामी कट्टरपंथी देवबंदी मौलाना है। उसे हिन्दुओं (गैर मुसलमानों) से सख्त नफरत है, क्योंकि उसकी नजर में वे सभी काफिर हैं ।
अबुल फैयाज खालिद हुसैन का जो मूल परिचय यह है कि वह हिफाजत-ए-इस्लाम बांग्लादेश नाम के घोर कट्टरपंथी संगठन के प्रमुखों में से एक है। खालिद हुसैन इस संगठन का उपाध्यक्ष है। इस संगठन का इतिहास ही है कि बांग्लादेश में जब से यह अस्तित्व में आया, तब से यहां जब-जब हिंदुओं को निशाना बनाया गया, उनकी संपत्ति लूटी गई, आग के हवाले की गई और उनकी हत्याएं हुई हैं, हिन्दू बच्चियों, युवतियों, महिलाओं के साथ रेप जैसे जघन्य अत्याचार हुए हैं, उन सब में और खास तौर पर भारत विरोधी रुख अपनाने में इस संगठन का हाथ सबसे अधिक रहता रहा है।
तालिबानी शासन स्थापित करना है हिफाजत-ए-बांग्लादेश का मकसद, इसलिए सिमट रही हिन्दू जनसंख्या
हिफाजत-ए-इस्लाम बांग्लादेश से जुड़े आज कई दस्तावेज हैं जो यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि वह इस देश को अफगानिस्तान की तरह बनाने की फिराक में है। यह संगठन लगातार बांग्लादेश में कट्टरपंथी तालीबानी इस्लाम लाने की वकालत ही नहीं करता, दिन-रात इस मकसद को पूरा करने के लिए काम कर रहा है। इस संगठन की योजना का असर इस हद तक बांग्लादेश में देखने को मिलता है कि लगातार यहां से हिन्दुओं को अपने को बचाने पलायन के लिए मजबूर होना पड़ गया है। इसी बांग्लादेश में साल 1951 में हिंदुओं की आबादी लगभग 22 प्रतिशत थी। जोकि साल 2011 के आते-आते 8.54 फीसदी तक सिमट गई, अब कहा जा रहा है कि आठ प्रतिशत से भी कम हो गई है । बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के गठन में मुहम्मद युनुस द्वारा खालिद हुसैन जैसे कट्टरपंथी को अपने साथ रखना, उसे अहम जिम्मेदारी देना, यहां साफ बता रहा है कि इस युनुस सरकार का झुकाव भी बांग्लादेश को कट्टर इस्लामिक राज्य बना देने की है ।
सामने आया छात्र आन्दोलन का सच !
बांग्लादेश की सरकार में एक दूसरा नाम भी है सरजिस आलम का, जोकि संपूर्ण छात्र आन्दोलन का संयोजक है। जिन दो छात्र नेताओं को यूनुस की अंतरिम सरकार में मंत्री पद मिला है, वह नाहिद इस्लाम और आसिफ महमूद को क्रमशः दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी तथा युवा और खेल मंत्रालयों का प्रभार दिए जाने में इस सरजिस आलम की अहम भूमिका है । सरजिस आलम की असली सोच क्या है, वह उसकी फेसबुक पोस्ट में उसने बताया ही । उसका मकसद बांग्लादेश में शरिया आधारित इस्लाम की स्थापना करना है। ये सरजिस आलम फेसबुक पोस्ट में लिखता है, “कल का राष्ट्र इस्लाम होगा, संविधान अल कुरान होगा – इंशाअल्लाह”। बांग्लादेश को कुरान के संविधान के साथ शरिया राष्ट्र में बदलने की उसकी योजना को इस पोस्ट से आज सहज समझा जा सकता है।
ज्यादातर मुसलमानों के लिए नौकरी और काम से ऊपर है इस्लाम
कुल मिलाकर संघर्ष अपने अस्तित्व का इस्लाम से अपने को बचाने का इजराइल का हो या बांग्लादेश में हिन्दुओं का । दोनों ही जगह एक बात साफ नजर आती है, इस्लाम की अतिवादिता, कट्टरता और गैर मुसलमानों के प्रति नफरत और उनके लिए हिंसा करते रहना। अधिकांश मुसलमानों के लिए नौकरी एवं अन्य जिम्मेदारियों से अधिक ऊपर इस्लाम है। इसलिए कई जगह यह देखने में आता है, कि वह नौकरी में रहते हुए इस्लाम की हकूक स्थापित करने के लिए ही काम करता दिखाई देता है।
शारणार्थी फिलिस्तीनियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत कार्य अभिकरण के कर्मचारी हों या संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में काम करनेवाले मुसलमान, या फिर बांग्लादेश की पुलिस, सेना के जवान जिनके वीडियो इस तख्ता पलट में, बांग्लादेश में होते हिन्दू अत्याचार पर प्रसन्नता से भरे हुए और अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगाते हुए सामने आ रहे हैं। यह साफ बता रहे हैं कि ऐसे मुसलमानों की संख्या बहुत बड़ी है, जिनके लिए इस्लाम, अल्लाह, दीन से बढ़कर कुछ नहीं है। वे हर हाल में हर जगह शरियत को लागू होता देखना चाहते हैं । उनकी नजर में गैर मुस्लिम देश दारुल-हरब हैं और उन्हें दारुल-इस्लाम बनाना ही उनके जीवन का मकसद है। तभी उन्हें जन्नत में 72 हूरें नसीब हो पाएंगी।
मुसलमान कहीं भी रह सकते हैं, लेकिन अपने बीच नहीं कर पाते गैर मुसलमान को सहन
समझने के लिए यह इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं कि इजराइल में बहुसंख्यक यहूदियों के बीच 18 प्रतिशत मुसलमानों को रहने के लिए पर्याप्त जगह है, इन यहूदियों को उनके रहने से कोई आपत्ति नहीं। लेकिन वहीं, फिलिस्तीन अपने यहां एक भी गैर मुस्लिम को बर्दाश्त नहीं कर सकता। गाजा पट्टी में गैर मुसलमान के लिए कोई जगह नहीं। भारत में बहुसंख्यक हिन्दुओं के बीच 30 करोड़ की संख्या में हो चुके मुसलमानों को रहने के लिए पर्याप्त स्थान है, यह दूसरी सबसे बड़ी आबादी हो गया है, फिर भी भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक बनकर रह सकता है। अल्पसंख्यक के नाम पर वह दोहरा लाभ भी लेता दिखेगा । एक-पिछड़े का तमगा लेकर आरक्षण का लाभ उठाएगा, दूसरा-अल्पसंख्यक होने का विेशेष लाभ उसे मिलेगा सो अलग बात है । यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, रूस समेत तमाम देशों में भी ये मुसलमान आराम से रह सकता है, लेकिन गैर मुसलमान इनके राज में सुकून से नहीं रह सकता। बांग्लादेश, पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के 57 मुस्लिम देशों में अधिकांश की स्थिति यही है कि वहां मुसलमान किसी अन्य मत, पंथ, धर्म, रिलीजन को स्वीकार्य करने को तैयार ही नहीं। हर जगह इस्लाम के शासन के लिए युद्ध हो रहा है । आज पूरी दुनिया इससे त्रस्त है।