जल उठा था 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बलिया, भागी अंग्रेजी हुकूमत

बलिया। उत्तर प्रदेश का बलिया 1942 में शुरु हुये भारत छोड़ो आंदोलन से अछूता नहीं है। बलिया की अगस्त क्रांति भारत छोड़ो आंदोलन को प्रेरित करने वाला अध्याय है। अगस्त क्रांति में बलिया के वीरों ने जो जज्बा दिखाया वह सराहनीय तो है ही, पराधीनता के प्रति जबरदस्त विरोध का सजीव उदाहरण भी है। भारत छोड़ो आंदोलन की आंच से पूरा बलिया तप रहा था और यहां के वीर हर हाल में अंग्रेजी हुकूमत को भगाने के लिए व्याकुल थे।

क्रांति आंदोलन का पहला चरण नौ अगस्त 1942 से शुरु हुआ। उसी दिन 15 वर्ष की किशोरावस्था में साहसी सूरज प्रसाद ने सेंसर के बाद भी एक हिन्दी समाचार पत्र लेकर उमाशंकर सिंह से सम्पर्क किया और भोंपा बजाकर महात्मा गांधी समेत अन्य बड़े नेताओं के गिरफ्तार होने की जानकारी दी। बस क्या था, वीरों की भुजाएं

फड़कने लगी और यहीं से आंदोलन उग्र हो गया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस आंदोलन में महिलाएं भी किसी से पीछे नहीं थी। सबसे पहले उन्होने ही जजी कचहरी पर तिरंगा फहरा दिया। इनके साहस और देश भक्ति के जज्बे को देखकर छात्राएं भी क्रांति के संग्राम में कूद पड़ीं। इसके अगले दिन सुबह आठ बजे शहर के ओक्टेनगंज (वर्तमान में ओक्डेनगंज) पुलिस चौकी के पूर्वी चौराहा पर उमाशंकर सोनार ने अपने साथियों के साथ क्रांति का शंखनाद किया। 11 अगस्त को नगर के विद्यार्थियों ने जुलूस के रुप में नगर की परिक्रमा करते हुए चौक पहुंचे और सभा किया। बारह अगस्त को आंदोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया जिसकी गूंज देश विदेश तक पहुंच गयी।

क्रांति की इस लहर में भारत सचिव एमरी के आदेश के अनुसार महात्मा गांधी एवं उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर जनता से अलग कर दिया गया। जिसके विरुद्ध स्कूली बच्चों द्वारा निकाले गये जुलूस पर शहर कोतवाल और डिप्टी कलेक्टर ने रेलवे स्टेशन के पश्चिमी क्रासिंग पर भयंकर लाठी चार्ज किया। तेरह अगस्त को गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने के लिए महिलाएं भी आंदोलन की ज्वाला में कूद पड़ी और जजी कचहरी पर तिरंगा फहरा दिया। 14 अगस्त को अपने घर की दादी मांओं के खून में उबाल और लाठी खाते देख स्कूली छात्राओं से रहा नहीं गया और वह भी इस ज्वाला में कूद पड़ी।

बांसडीह में क्रांतिकारी छात्र भी जुलूस के शक्ल में कांग्रेस कमेटी के अधिकृत दफ्तर पर पहुंच गये। 15 अगस्त को क्रांति की लौ में पूरा जिला जलने लगा और आंदोलनकारियों ने एकजुट हो जोरदार प्रदर्शन किया। हजारों की संख्या में क्रांतिकारियों का सैलाब इंकलाब जिंदाबाद व अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगाते हुए अपराह्न तीन बजे सुरेमनपुर रेलवे स्टेशन जा पहुंचा। देखते ही देखते आंदोलनकारियों ने रेल पटरियों को उखाड़ फेंका। सोलह अगस्त को एक बार फिर बलिया शहर की महिला क्रांतिकारियों ने जुलूस निकाला। उन पर लोहापट्टी में अंग्रेजों ने गोलियां चलायी। जिसमें नौ लोग शहीद हो गये।

उधर, चितबड़ागांव रेलवे स्टेशन भी फूंक दिया गया। रेलवे स्टेशनों और थानों को आंदोलनकारियों द्वारा फूंकते देख नरही थाने पर थानेदार ने खुद ही तिरंगा फहरा दिया। यहां के लोगों ने जिले के पूर्वी छोर के रेल मार्ग को पूरी तरह ठप करने के बाद रसड़ा में भी 17 अगस्त को रेलवे स्टेशन को जला दिया और पटरियां उखाड़ दी, साथ ही डाकखाने को भी आग के हवाले कर दिया। जिले की ओर आने वाले सभी मार्गों को पूर्ण रुप से अवरुद्ध करने के बाद आंदोलन कारियों ने उसी दिन सहतवार में भी रेलवे स्टेशन, थाना और डाकखाने को जला दिया। इसी दिन बांसडीह तहसील पर जनता का कब्जा हो गया।

18 अगस्त को बांसडीह थाना एवं तहसील का रिकार्ड जलाकर तिरंगा फहराया गया और रेवती थाने को भी आंदोलनकारियों ने फूंक दिया। इसी दिन बैरिया में क्रांतिकारियों ने स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपना अमर कर दिया।

बैरिया की जनता ने जिस साहस व बहादुरी का परिचय दिया वह स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अनोखी घटना मानी जाती है। उस दिन अपराह्न एक बजे हजारों क्रांतिकारी बैरिया थाने पर एकत्र हुए थे। जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं।। तत्कालीन थानेदार ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। जिसमें 19 लोग शहीद हो गये। 18 वर्षीय नौजवान कौशल कुमार ने थाने के पीछे से छत पर चढ़कर ज्योंही तिरंगा फहराना चाहा तब तक सिपाही महमूद खां ने गोली चला दी। वीर सपूत कौशल कुमार तिरंगा लिये लहुलूहान होकर नीचे गिर पड़े।

जिले भर से क्या आंदोलनकारी, क्या किसान और क्या छात्र सभी के कदम बलिया जिला कारागार की ओर बढ़ चले। जेल में बंद पंडित चित्तू पांडेय, राधामोहन सिंह, पंडित महानंद मिश्र व विश्वनाथ चौबे जैसे क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए लोगों ने जेल को घेर लिया। भीड़ के जोश को देखते हुए अंग्रेजों के होशफाख्ता हो गये। तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट जे निगम ने आखिरकार भारी जन-दबाव के बीच जेल का फाटक खुलवाया और सभी क्रांतिकारी जेल के बाहर आ गये। उसी दिन कलेक्टर ने अपनी कुर्सी खाली कर उसे शेरे बलिया चित्तू पांडेय को सौंप दिया और भारत में सबसे पहले आजाद होने वाले किसी भूभाग के कलेक्टर बनने का इतिहास कायम कर दिया।

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