डाला (सोनभद्र) हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी डाला गोलीकांड में एक छात्र समेत शहीद हुए नौ निर्दोष बलिदानी कर्मचारियों की 33वीं पुण्य स्मृति में आज शहीद दिवस मनाया जाएगा।
सार्वजनिक क्षेत्र की सीमेंट निगम की इकाइयों को निजी क्षेत्र में तब्दील करने के कुत्सित प्रयास को विफल करने के लिए सीमेंट निगम के कर्मचारी गांधीवादी तरीके से श्रमिक आंदोलन चला रहे थे उसी दौरान तत्कालीन सुबे की मुलायम सिंह यादव सरकार ने आंदोलन को विफल करने के लिए निहत्थे श्रमिकों पर डाला में गोली चलवा कर एक छात्र समेत नौ श्रमिकों को अपनी शहादत देने के लिए मजबूर कर दिया था।
दो जून 1991 डाला के लिए नहीं बल्कि पूरे देश के लिए अघोषित काले-कारनामा का दिन था। वर्दी की गोली से नौ लोग शहीद हो गए थे बहुतेरे घायल हुए थे। भयानक पीड़ादायक अत्यंत दुःखद घटना लोगों की जुबां पर अब भी बनी रहती है। शहीद स्थल पर डाला गोली कांड के अमर शहीदो में छात्र राकेश तिवारी, कवि हृदय श्रमिक रामप्यारे कुशवाहा ‘विधि’, शैलेंद्र राय, नंदलाल, बाल गोविंद, नरेश राम, सुरेंद्र द्विवेदी, रामधारी, दीनानाथ के श्रद्धांजलि में पहुँचने वाले हर व्यक्ति का सिर खुद ब खुद झुक जाता है और आंखें नम हो जाती है। परिजनों को असह्य पीड़ा दे जाता है।
डाला गोली कांड पर जनता के रूख पर शहीद अशफाक उल्लाह खां की शेर बड़ी सटीक है-
‘शहीदों के मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।’
वहीं सरकारी रूख पर चन्द्र शेखर आजाद की अशफाक की बदली हुई शेर भी सटीक बैठती है-
‘शहीदों की चिताओं पर पड़ेंगे खाक के ढेले। वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।’
सुंदर लोगों का सम्मान स्व स्फूर्त जनता खुद देती है। शहीद-परिवारों, पुलिस की गोलियों से घायल सभी श्रमिकों के प्रति इसी दिन 3 बजकर 20 मिनट पर हार्दिक संवेदनाएं अभिव्यक्त होती हैं और ठीक इसी वक्त पर सांकेतिक चक्काजाम कर अमर शहीदों को 2 मिनट मौन खड़े होकर शत शत नमन करते हुए श्रद्धांजलि दी जाती है।
दो जून 1991 में डाला- चुर्क – चुनार की सार्वजनिक क्षेत्र की सीमेंट फैक्ट्री निजी हाथों बेचने का विरोध सीमेंट कर्मी और उनके परिजन कर रहे थे। इसी बीच गोली चली और नौ लोग शहीद हो गए।
गोली से शहीद हुए कुछ लोगों की लाशों को छिपाने की भरपूर कोशिश हुई थी, जिसे लोगों ने विफल कर दिया था। चारों ओर फैली चित्कार ने जन मानस को हिला दिया था। सड़कों पर खून, भय का माहौल आज भी लोगों के रोंगटे खड़ा कर देता है।
सीमेंट निगम के युद्धक कर्मियों की शहादत के बाद भी सीमेंट निगम निजी हाथों बिक ही गया। सरकार नहीं मानी।
घाटा नहीं घोटाला था!
भ्रष्टाचारियों का बोलबाला था!
गैर कांग्रेसी सरकारें सीमेंट निगम में घाटे की तो खूब बात करती थी पर घोटाले को अंदरखाने से खूब शह देती थी। प्रबंधन नौकरशाहों के हाथ में था, जिन्हें (कुछ को छोड़कर) कारखाने से लगाव न था, बल्कि लूट का उनके लिए अच्छा केंद्र था।
नेताओं की कमी न थी पर भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में वे कारगर सिद्ध नहीं हो सके। व्यक्तिगत लाभ के चक्कर में सार्वजनिक उपक्रम औने-पौने दामों में बिक गई जिसे जेपी नहीं चला सका और अब अल्ट्राटेक सीमेंट यानी बिरला ग्रुप संचालित कर रहा है।