
दलित चिंतक प्रोफेसर कंवल भारती कहते हैं कि कांशीराम और मायावती ने आंबेडकर के आंदोलन को खत्म कर दिया. उनका कहना है कि उत्तर भारत में दलितों के बीच जो समानता की भावना पनप रही थी वह 1980 के बाद नष्ट होती गई. उनकी बात काफी हद तक सही है. आंबेडकर को हिंदी बेल्ट में लाने वाले चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु थे. उन्होंने डॉ. आंबेडकर की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया और आंबेडकर को हिंदी बेल्ट में घर-घर पहुंचाया. आंबेडकर को समझा जाता तो संभवतः इस क्षेत्र में भी समानता, बंधुत्त्व और स्वतंत्रता की बात होती. यूं उत्तर भारत में भी अछूतों पर अत्याचार के विरुद्ध आंदोलन 19वीं सदी से शुरू होने लगे थे. कानपुर के स्वामी अछूतानंद हरिहर, अलीगढ़ के अजुध्या प्रसाद दांडी आदि ने अछूतोद्धार के कार्यक्रम चलाए थे और लोगों में चेतना पैदा की थी.
शूद्र जातियों के आंदोलन
समाज सुधार के आंदोलन शुरू होते ही अछूतों और शूद्र जातियों में भी जातीय चेतना पैदा हुई. सबसे पहले दक्षिण भारत में नम्बूदरी ब्राह्मणों के बनाये कानूनों का विरोध शुरू हुआ. नारायण गुरु ने इस विरोध का झंडा उठाया. उनके आंदोलन ने केरल और तमिलनाडु में खूब जोर पकड़ा. यहां तक कि सारी गैर ब्राह्मण जातियां ब्राह्मणों के खिलाफ हो गईं. महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले ने इन जातियों में अलख जगाई. बंगाल में नामशूद्र आंदोलन भी इसी कड़ी में था. 1873 में आजकल के बांग्ला देश स्थित फरीदपुर से यह आंदोलन शुरू हुआ था. यह सवर्ण जातियों द्वारा नामशूद्रों के साथ भेद-भाव बरते जाने के खिलाफ था. नामशूद्र लोगों को सवर्ण जातियां चांडाल कहतीं, यह शब्द बेहद अपमानजनक था. बाद में ये जातियां मछली पकड़ने और खेती के काम में लग गईं.
पैसा आया तब स्वाभिमान की भावना आई
नामशूद्र एक ऐसा आंदोलन था, जिसने बंगाल में जातीय समानता की नींव रखी. आज बंगाल में जातीय भेद-भाव बहुत कम है. इस्लाम और ईसाईयत के प्रसार ने चांडाल जाति के भीतर आत्म सम्मान की भावना जागृत की. इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो पाते हैं कि मछली पकड़ने वाले और छोटी-मोटी किसानी करने वाली चांडाल जाति जब बाज़ार के फैलाव से समृद्ध हुई तब उसने अपनी सामाजिक स्थिति मज़बूत करने की लड़ाई शुरू की. एक तरह से कहा जा सकता है कि सामाजिक आंदोलन भी बाज़ार की उपज हैं. एक तरह औद्योगिक और पूँजीवादी क्रांति ही मनुष्य के अंदर समानता का भाव पैदा करती है. इसी से जातियों के बीच गति-शीलता आती है. मतुआ समुदाय के हरिचंद ठाकुर ने जातीय असमानता दूर करने के लिए बड़े आंदोलन किए थे.
समानता की भावना ने दलितों में चेतना जागृत की
दरअसल, ब्राह्मो समाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज के प्रवर्तक भले ब्राह्मण रहे हों और इनका मक़सद हिंदू धर्म की संस्थागत जड़ता को तोड़ना था. सदियों से चली आ रही सामंती नीतियों ने इन्हें जड़ बना दिया था. हिंदू धर्म गतिशील नहीं रह गया. मध्य काल में बाबा नानक, कबीर और तुलसी ने इस जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया था मगर इस पर मजबूती से प्रहार स्वामी दयानंद ने किया. पहली बार हिंदू समाज में पूँजीवादी चेतना आई. इन सब समाज सुधार आंदोलनों ने ईश्वर को एक माना और हिंदू समाज के भीतर समानता का प्रसार किया. दलित आंदोलनों के पीछे यही समानता का भाव था. पहला प्रहार ठक्कर बापा ने किया जिन्होंने अछूतोद्धार के लिए आंदोलन चलाया था. इसमें सवर्ण जातियों के अंदर भी यह भाव पैदा हुआ कि शूद्रों और दलितों के साथ समान व्यवहार किया जाए.
दलित किसानी करते थे
कुछ लोग समझते हैं कि दलित वही है जो या तो चमड़े का काम करता हो अथवा सफाई का. यह सच नहीं है. दलितों का एक बड़ा तबका किसानी भी करता है. पेशवा काल में भी महार जातियां किसानी करती थीं. ये अधिकतर बटाई के जोतदार थे. सवर्ण किसान इनके साथ छुआ छूत का व्यवहार करते. इनका छुआ पानी नहीं पीते थे. इन्हीं को अछूत कहा गया. किंतु 1857 के बाद अंग्रेजों ने महार जातियों के लिए सेना में भरती शुरू की. इसका फायदा इन जातियों को हुआ. इनके पास अतिरिक्त पैसा आया. आधुनिक शिक्षा मिली और इन्होंने अपनी सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने के लिए संघर्ष किया. डॉ. भीमराव आंबेडकर के पैदा होने के पहले से समानता के आंदोलन शुरू हो चुके थे. कानपुर के स्वामी अछूतानंद ने तो आदि हिंदू नाम से एक पत्र भी निकाला था.
हीरा डोम की अछूत की शिकायत
महात्मा गांधी ने अछूतोद्धार के अपने कार्यक्रम 1915 में शुरू कर दिए थे. 1914 में हीरा डोम नाम के एक दलित कवि ने ‘अछूत की शिकायत’ नाम से एक कविता लिखी जो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती पत्रिका में 1914 में प्रकाशित हुई. भोजपुरी में लिखी यह कविता बेहद मार्मिक है. उसकी कुछ लाइनें यहां प्रस्तुत हैं-
”हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानीं,
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।
जेत उइओं बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कुल खबरि सरकार के सुनाइबि।
अछूतानंद हरिहर
स्वामी अछूतानंद हरिहर मूल रूप से सौरिख फर्रुखाबाद के थे. उन्होंने अपना कर्मक्षेत्र कानपुर बनाया. उत्तर भारत में दलित चेतना के वाहक थे. दलित साहित्य के प्रखर चिंतक श्योराज सिंह बेचैन ने इन्हें दलित साहित्य का जनक बताया है. स्वामी अछूतानंद पहले आर्य समाज के प्रभाव में आए और उनके प्रचारक भी बने. पर जल्द ही आर्य समाज आंदोलन से स्वामी जी का मोह भंग हो गया. उन्होंने आर्य समाज का भंडाफोड़ कार्यक्रम चलाया कि आर्य समाज हिंदुओं को मुसलमानों से लड़वाता है और उन्हें वेदों और ब्राह्मणों का दास बनाता है. इसलिए वे दिल्ली गए और 1911 में अखिल भारतीय दलित महासभा की स्थापना की. इसके बाद उन्होंने अछूत नाम से एक मासिक पत्र निकाला और अपना नाम हीरा लाल से बदल कर अछूतानंद हरिहर रख लिया. स्वामी अछूतानंद आदि हिंदुओं को भारत का मूल निवासी बताते थे.
आर्य-अनार्य थ्योरी को आंबेडकर ने खारिज किया
ऐसे समय में उदय होता है डॉ. भीमराव आंबेडकर का. उन्होंने सभी दलित आंदोलनों को देखा और परखा. विदेशों में जा कर कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट हासिल की. लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में पढ़ाई की और बंधुत्त्व व स्वतंत्रता का उद्घोष किया. आंबेडकर ने अंग्रेजों द्वारा बनाई गई आर्य-अनार्य थ्योरी को खारिज किया. वे समझ गए थे कि इस थ्योरी का प्रचार कर अंग्रेज आर्यों को श्रेष्ठ बताने का कुचक्र कर रहे हैं. यह थ्योरी सर्वथा अवैज्ञानिक है. इसलिए उन्होंने आधुनिक दृष्टिकोण से मानव विज्ञान और जातिवाद को समझा तब आंदोलन शुरू किया. इसमें कोई शक नहीं कि 20वीं सदी के सर्वाधिक मेधावान नेताओं में उनकी गिनती होती है. अंग्रेजों के समय भी वे विधान परिषद तथा विधान सभा के भी सदस्य रहे और सदन में डिप्रेस्ड क्लास (अछूत) के लिए सवाल उठाते रहे.
दलितों के प्रति समानता का भाव लाओ
डॉ. आंबेडकर की समझ व्यापक और वैश्विक थी इसलिए उन्होंने अपने आंदोलन में अगड़ी जाति के लोगों को भी जोड़ा. मनु स्मृति को जलाने वाले सहस्त्रबुद्धे ब्राह्मण थे जबकि डॉक्टर आंबेडकर उसे जलाने के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने सभी लोगों का आहवान किया और कहा, छुआछूत गुलामी से भी बदतर है. वे चूंकि मध्य वर्ग के थे. उनके पिता सेना में थे और पैसों का अभाव उनके पास नहीं रहा, इसलिए अपने वर्ग में हो रहे भेद भाव को उन्होंने शिद्दत से महसूस किया. आंबेडकर कहते थे गरीब और दलित में फर्क है. इसीलिए वे मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के भी आलोचक थे और महात्मा गांधी के भी. उनका आरोप था कि अछूतों के प्रति इनका दृष्टिकोण करुणा का है. अर्थात् दलितों के प्रति दया भाव रखो जबकि आंबेडकर का कहना था दलितों के साथ समानता का भाव. दोनों में बहुत अंतर है. बहुत से कांग्रेसियों को लगता था कि आंबेडकर कटु हैं पर ऐसा नहीं था.
दलितों का रास्ता अलग
गांधी जी और आंबेडकर के विचारों में मूल अंतर यह था कि आंबेडकर ब्रिटिश सत्ता से बातचीत करते समय दलितों की अलग राजनीतिक सत्ता चाहते थे. जबकि गांधी जी स्वयं को समस्त भारतीय समाज का प्रतिनिधि मानते थे. वे पंचम जाति अथवा अछूत को हिंदू समाज का अभिन्न अंग मानते थे. इसीलिए 8 अगस्त 1930 को पहले गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने भीमराव आंबेडकर को बुलाए जाने का विरोध किया था. पर आंबेडकर का भाषण सुन कर वे उनसे बहुत प्रभावित हुए. इस सम्मेलन में आंबेडकर ने अपना राजनीतिक दृष्टिकोण रखा. वे दलितों के मामले में कांग्रेस और ब्रिटिश राज सत्ता का दख़ल नहीं पसंद करते थे. उन्होंने स्पष्ट कहा, हमें अपना रास्ता अलग चुनना होगा और बनाना भी होगा. आंबेडकर ने दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की बात रखी. इस पर गांधी जी और उनमें तीखी झड़प हुई.
पूना पैक्ट
1932 में ब्रिटिश सरकार अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र देने को राज़ी हो गई. इसके अनुसार दलित समुदाय अपने एक वोट से किसी दलित प्रत्याशी को चुनेगा और दूसरा वोट सामान्य जाति के उम्मीदवार को देगा. महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया और आमरण अनशन शुरू कर दिया. पर आंबेडकर अपनी ज़िद पर रहे. लेकिन इससे सारा हिंदू समाज आंबेडकर के विचारों का विरोधी हो गया. अंत में 24 सितंबर 1932 को यरवडा जेल में जा कर आंबेडकर गांधी से मिले और दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र छोड़ने की घोषणा की. इतिहास में यह समझौता पूना पैक्ट के नाम से मशहूर है. इसके बाद गांधी जी ने सदैव उनको आगे रखा. गांधी जी के आग्रह पर ही आंबेडकर साहब को संविधान सभा की संविधान निर्मात्री समिति का सदर बनवाया.
नेहरू उन्हें राज्य सभा में लाए
डॉक्टर भीमराव आंबेडकर 1926 से 1956 तक वे विधान परिषद, विधान सभा और संसद में रहे. गांधी जी अछूत जातियों को हरिजन नाम दिया लेकिन आंबेडकर ने उन्हें दलित कहा. उनकी विद्वता के कायल प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी थे. इसीलिए 1952 में जब वे चुनाव हारे तब नेहरू जी उन्हें राज्यसभा में ले कर आए. वे दो बार राज्य सभा में रहे.