
उत्तर प्रदेश की सियासत में कांशीराम ने अस्सी के दशक में दलित और पिछड़ों के बीच राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया. समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े दलित और अतिपिछड़ी जातियों के सहारे मायावती एक−दो बार नहीं चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी. इसके बाद से बहुजन वोटों पर सिर्फ बसपा का ही एकछत्र राज कायम था, लेकिन 2012 में मायावती के सत्ता से बेदखल होने के बाद बसपा का ग्राफ दिन ब दिन कमजोर होता जा रहा है. 2024 में जीरो सीटों पर सिमट जाने के बाद बसपा के लिए 2027 की राह काफी मुश्किलों भरी नजर आ रही है, जिसके चलते मायावती उसी फॉर्मूले पर लौटी है, जिस पर बसपा की बुनियाद पड़ी थी.
2027 के विधानसभा चुनाव को लेकर मायावती पूरी मशक्कत से जुटी है. बसपा के खिसके राजनीतिक जनाधार को दोबारा से पाने के लिए मायावती एक बार फिर से कांशीराम के सियासी पैटर्न पर लौटी हैं. मायावती दलित के साथ ओबीसी जातियों को जोड़कर बसपा की बहुजन सियासत को मजबूत करने की स्ट्रैटेजी मानी जा रही है. बसपा इसी समीकरण के सहारे ही लौट सकती है, लेकिन बदले हुए सियासी दौर में ओबीसी जातियों को जोड़ना मायावती के लिए आसान नहीं है?
बहुजन पॉलिटिक्स पर लौटी मायावती
उत्तर प्रदेश में बसपा की स्थिति काफी कमजोर हो गई है. 2022 के चुनाव में बसपा एक सीट जीतने के साथ 13 फीसदी वोट पर सिमट गई. 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा जीरो पर सिमट गई और 9.39 फीसदी वोट ही मिला. पहले गैर-जाटव दलित यूपी में बीएसपी से खिसकर बीजेपी में शिफ्ट हो गया था. 2022 और 2024 में जाटव वोट में भी सेंधमारी हो गई. बसपा के सिमटते सियासी जनाधार को दोबारा से मजबूत करने के लिए मायावती ने कांशीराम के तर्ज फिर से बहुजन सियासत को मजबूत करने की रणनीति अपनाई है. इसके तहत ही मायावती ने दलित और ओबीसी समीकरण बनाने के दिशा में कदम बढ़ा दिया है.
मायावती ने मंगलवार को पार्टी दफ्तर में ओबीसी और दलित नेताओं की बैठक की. मायावती ने 13 साल के बाद ओबीसी नेताओं को पार्टी से जोड़ने के मिशन पर काम शुरू किया है. उन्होंने ने कहा कि बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर के संघर्ष के अनुरूप बहुजन समाज के सभी को आपसी भाईचारा के आधार पर संगठित करने का फैसला लिया गया है. इस दौरान गांव-गांव में लोगों को खासकर कांग्रेस,भाजपा और सपा के दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग विरोधी चाल, चरित्र और चेहरे के साथ इनके द्वारा लगातार किए जा रहे छल, छलावा के प्रति जागरूक किया जाएगा. इस तरह मायावती ने दलितों के साथ ओबीसी को जोड़कर बहुजन समाज की पॉलिटिक्स करने की रणनीति मानी जा रही है.
बहुजन सियासत को कांशीराम ने दिया धार
कांशीराम ने दलित समाज के साथ-साथ ओबीसी समाज को भी जोड़ने का काम किया था. यूपी में ओबीसी की सियासत मुलायम सिंह यादव ने शुरू की तो अतिपिछड़ों की राजनीतिक ताकत को सबसे पहले कांशीराम ने समझा था. मुलायम सिंह ने ओबीसी की ताकतवर जातियों जैसे यादव-कुर्मी के साथ मुस्लिम का गठजोड़ बनाया तो कांशीराम ने अतिपिछड़ों में मौर्य, कुशवाहा, नई, पाल, राजभर, नोनिया, बिंद, मल्लाह, साहू जैसे समुदाय के नेताओं को बसपा के साथ जोड़कर एक मजबूत बहुजन सियासत खड़ी की थी.
बसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान कांशीराम और मायावती ने अपने हाथ में रखा, लेकिन उत्तर प्रदेश संगठन की बागडोर ज्यादातर ओबीसी समुदाय से आने वाले नेताओं के हाथ में रही. दलित के साथ अतिपिछड़ी जातियां ही बसपा की बड़ी ताकत बनी थी. बसपा के बहुजन फॉर्मूले पर मायावती चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी, लेकिन कांशीराम के निधन और 2012 में सत्ता से बाहर होने के बाद जाटव समाज बसपा के साथ जुड़ा रहा, लेकिन गैर-जाटव दलित और अतिपिछड़ी जातियां दूर हो गई. इसके चलते बसपा का शेयर 9.39 फीसदी पर पहुंच गया.
ओबीसी समाज को जोड़ना कितना मुश्किल
मायावती दोबारा से दलित और ओबीसी के समीकरण को बनाने की दिशा में पहल की है, लेकिन मौजूदा दौर में आसान नहीं है. बसपा 13 सालों से सत्ता से दूर है. ओबीसी समाज बीजेपी का कोर वोटबैंक बन गया.बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी जातियों को साधकर उत्तर प्रदेश में अपना सत्ता का सूखा खत्म किया था. फिलहाल यूपी में बीजेपी का बैकबोन ओबीसी बने हुए हैं, जिसके धुरी पर मोदी सरकार और योगी सरकार टिकी हुई है. ओबीसी के सहारे ही नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बने थे और 2017 में योगी आदित्यनाथ सीएम बने. इसके बाद से यूपी में जितने चुनाव हुए हैं, उसमें ओबीसी का बड़ा वोट शेयर बीजेपी को ही मिला है.
पीएम मोदी खुद भी ओबीसी समाज से आते हैं तो उनकी कैबिनेट में भी ओबीसी समाज के 29 नेता मंत्री हैं. इसी तरह यूपी की योगी सरकार में ओबीसी समाज से आने वाले केशव प्रसाद मौर्य डिप्टी सीएम हैं तो 21 ओबीसी समाज के मंत्री हैं. यही नहीं 2014 के बाद उत्तर प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर ओबीसी समाज के नेताओं के हाथ में ही है. इसके अलावा बीजेपी जातियों में बिखरे हिंदू वोटों को एकजुट करने की मुहिम में जुटी है, जिसमें आरएसएस भी मुख्य रोल अदा कर रहा है. बीजेपी ने सिर्फ संगठन ही नहीं बल्कि सरकार में भी ओबीसी जातियों को प्रतिनिधित्व देकर उन्हें अपना कोर वोटबैंक बना रखा है है.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव की रणनीति पीडीए फॉर्मूले (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) के जरिए मजबूत पकड़ बनाए रखने की कवायद में है. इस तरह ओबीसी समाज में सबसे बड़ी आबादी वाले यादव जाति पहले से ही सपा का कोर वोटबैंक है और उसके साथ ओबीसी में आने वाली कुर्मी, कोइरी, लोध, गुर्जर, जाट, राजभर जैसेओबीसी के साथ-साथ दलित को भी एकजुट करने में लगे हैं. 2024 के चुनाव में सपा ने पिछड़े और दलित वोटबैंक के सहारे बीजेपी को मात देने में सफल रहे हैं.
सपा-बीजेपी से कैसे पार पाएगी बसपा
बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग और सपा के पीडीए समीकरण के सामने मायावती की नजर अतिपिछड़ी जातियों पर है. ओबीसी के साथ दलित फॉर्मूले को फिर से अमलीजामा पहनाने की कवायद में है, जिसके लिए मायावती ने संगठन में दलितों के साथ ओबीसी समाज को सियासी अहमियत देना शुरू कर दिया है. यूपी में जिस भी दल ने ओबीसी जाति को साधने में सफल रही है, उसी के नाम सूबे की सत्ता रही है. सपा और बीजेपी ने ओबीसी वोटों पर अपना वर्चस्व कायम कर रखा है. ऐसे में मायावती के लिए दोबारा से दलित-ओबीसी समीकरण को अमलीजामा पहनाना आसान नहीं है.
यूपी में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का है. करीब 52 फीसदी पिछड़ा वोट बैंक में 43 फीसदी वोट बैंक गैर-यादव बिरादरी का है, जो कभी किसी पार्टी के साथ स्थाई रूप से नहीं खड़ा रहता है. यही नहीं पिछड़ा वर्ग के वोटर कभी सामूहिक तौर पर किसी पार्टी के पक्ष में भी वोटिंग नहीं करते हैं. यूपी में ओबीसी समाज अपना वोट जाति के आधार पर करता रहा है. यही वजह है कि छोटे हों या फिर बड़े दल, सभी की निगाहें इस वोट बैंक पर रहती हैं. सपा और बीजेपी अति पिछड़ी जातियों में शामिल अलग-अलग जातियों को साधने के लिए उसी समाज के नेता को मोर्चे पर भी लगा रखा है.
उत्तर प्रदेश में ओबीसी की 79 जातियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर कुर्मी समुदाय की है. ओबीसी जातियों में यादवों की आबादी कुल 20 फीसदी है जबकि राज्य की आबादी में यादवों की हिस्सेदारी 11 फीसदी है,जो सपा का परंपरागत वोटर माना जाता है. गैर-यादव ओबीसी जातियां अहम वहीं, यूपी में गैर-यादव ओबीसी जातियां सबसे ज्यादा अहम हैं, जिनमें कुर्मी-पटेल 7 फीसदी, कुशवाहा-मौर्या-शाक्य-सैनी 6 फीसदी, लोध 4 फीसदी, गडरिया-पाल 3 फीसदी, निषाद-मल्लाह-बिंद-कश्यप-केवट 4 फीसदी,तेली-शाहू-जायसवाल 4, जाट 3 फीसदी,कुम्हार-नोनिया-प्रजापति 3 फीसदी, कहार-नाई-चौरसिया 3 फीसदी, राजभर 2 फीसदी और गुर्जर 2 फीसदी हैं.
यूपी में बीजेपी, सपा, बसपा ने ओबीसी समुदाय से प्रदेश अध्यक्ष है. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष फिलहाल जाट समाज हैं, जिनका कार्यकाल पूरा हो गया है और जल्द ही नया अध्यक्ष बनाया जाना है. सपा के प्रदेश अध्यक्ष पाल से हैं तो बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भी पाल हैं. मायावती अब फिर से ओबीसी की उन्हीं जातियों को जोड़ने की कवायद कर रही है, जिनको कांशीराम ने जोड़ा था. मायावती की नजर पाल, कुर्मी, कुशवाहा जैसी जातियों पर है. बसपा के जिला अध्यक्ष की लिस्ट में साफ दिख रहा है कि कैसे ओबीसी जातियों को अहमियत दी जा रही है. ऐसे में देखना है कि बसपा क्या ओबीसी का विश्वास फिर से जीत पाएगी?