
Holi Celebration History in Nawab’s Time: होली का त्योहार है और इतिहास के पन्ने भी पलटे जा रहे हैं. खासतौर पर अवध के वो नवाब याद किए जा रहे हैं, जो जमकर फूलों और रंगों की होली खेलते थे. औरंगजेब के नफ़रती दौर के जिक्र बीच उसी वंश के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र भी याद आ रहे हैं, जिन्हें होली का बेसब्री से इंतजार रहता था. पढ़िए नवाबों और ज़फ़र की होली के कुछ किस्से.इस बार होली और जुमा एक ही दिन होने के चलते खुशियों के रंग बीच तीखी बयानबाजी की सरगर्मी है. होली के मस्त माहौल में अमन-चैन कायम रखने की भी प्रशासन-पुलिस के सामने चुनौती है. पर इस तनाव-दबाव से दूर बड़ी संख्या उनकी है जो रंग,अबीर-गुलाल उड़ाते फाग गाते गले मिल गुझियों की मिठास का आनंद ले रहे हैं.
इतिहास के पन्ने भी पलटे जा रहे हैं. खासतौर पर अवध के वो नवाब याद किए जा रहे हैं, जो जमकर फूलों और रंगों की होली खेलते थे. औरंगजेब के नफ़रती दौर के जिक्र बीच उसी वंश के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र भी याद आ रहे हैं, जिन्हें होली का बेसब्री से इंतजार रहता था. पढ़िए नवाबों और ज़फ़र की होली के कुछ किस्से,
बसंत पंचमी साथ होली की तैयारी
अवध में बसंत पंचमी के दिन ही होली की तैयारी शुरू हो जाती है. होलिका दहन स्थल पर पूजन के साथ ही होली की आमद का संदेश मिल जाता है. युग बदलते रहे. सदियां गुजरती रहीं. शासक बदले. विदेशी मुस्लिम सुल्तान-नवाब भी हुकूमत पर काबिज हुए. उनमें कुछ को हिंदू त्योहारों, रंगों और होली से परहेज था. लेकिन ऐसे भी थे जो यहां की मिट्टी-माहौल और परंपराओं में ढल और रच-बस गए.
अवध के मुस्लिम नवाब उन शासकों में शामिल थे जो हिंदू त्योहारों में बढ़-चढ़कर भागीदारी करते थे. रामलीला के मंचन, दिवाली की रोशनी, होली में रंगों और फूलों की बरसात बीच गीत-संगीत-नृत्य की सजी महफिलों में इन नवाबों की गजब की दिलचस्पी थी. ये नवाब गंगा-जमुनी तहजीब के कायल थे. जाहिर है कि इन नवाबों के वक्त हिंदू आबादी अपने त्योहारों और रिवाजों को लेकर बेफिक्र थी.
सुन बैन उठे मन में हिलोर
नवाब सआदत अली खां के समय बसंत पंचमी के मौके मुशायरे की महफिलें सजतीं थीं. बादशाह नसीरुद्दीन हैदर का अलग ही अंदाज था. गोमती की धार बीच बजरे पर संगीत की लहरियां गूंजतीं. जाने आलम के समय कैंसर बाग में बसंत मेला लगता. शाही बाग आम जनता के लिए खोल दिए जाते. चारों ओर फूलों की खूबसूरती और खुशबू बीच संगीत की लहरियों के खुशगवार माहौल बीच गव्वयों के मीठे सुर सजते ,
रंग रैलियां कलियन संग करत,
फूली फुलवारी चारों ओर,
कोयलिया कूके चहूं ओर,
सुन बैन उठे मन में हिलोर
नवाबों ने नौरोज को बना दिया होली जैसा
अवध के इतिहास पर बड़ा काम करने वाले इतिहासकार योगेश प्रवीन के मुताबिक नवाबों को होली से इस कदर लगाव था कि उन्होंने मुस्लिमों के नौरोज त्यौहार को होली जैसा बना डाला. लखनऊ में आज भी इसे दूसरी होली कहा जाता है. प्रवीन ने अपनी किताब “बहारें अवध” में लिखा है कि नौरोज के दिन एक-दूसरे पर गुलाब जल और इत्र और मकान के चारों ओर केवड़े का छिड़काव करते हैं.
नवाबी दौर में इसमें दोपहर के पहले रंग खेलना शामिल हुआ. बादशाह बेगम और नसीरुद्दीन हैदर ने इसकी शुरुआत की. मालिका किश्वर और उनके बेटे वाजिद अली शाह के वक्त में नौरोज पूरे शबाब पर आया. पुराने लखनऊ के नक्खास में आज भी नौरोज के मौके पर होली का अहसास होता है.
आसफुद्दौला: फूलों के रंग, मुजरों की महफिलें
नवाब आसफुद्दौला को होली से गजब का लगाव था. वे अपने वजीरों और दरबारियों के साथ रंगों में भीगना और अबीर-गुलाल उड़ाना पसंद करते थे. टेसू (पलाश) के फूलों के रंग बनाए जाते. रंगों की बौछार के साथ फूलों की भी बरसात होती. त्यौहार पर उन्हें अपनी प्रजा का खास ख्याल रहता.
महाराजा टिकैत और राजा झाऊ लाल अपने सेवकों के साथ गुलाल भरे चांदी के थालों और गंगा-जमुनी गुलाबपाश साथ शाही महल पहुंचते थे. नवाब की ओर से भी खातिरदारी का मुकम्मल बंदोबस्त रहता था. रंग-बिरंगे शामियाने ताने जाते. उन्हें झाड़-फानूस से सजाया जाता. मुजरों की महफिलें माहौल को खूब मस्त करतीं. आसफुद्दौला के दौर में इसमें कहारों के नाच “कहरा” और धोबियों के नाच ” बरेहटा” ने और मस्ती घोली.
वाजिद अली शाह: वो तो यूं ही सखिन पीछे पड़े
आखिरी नवाब वाजिद अली शाह तो वैसे भी गीत-संगीत और महफिलों में डूबे रहते थे. फिर होली का क्या कहना! योगेश प्रवीन लिखते हैं कि फाल्गुन के महीने के शुरुआत में ही अयोध्या के कथिक और ब्रज के रहसधारियों का ऐशबाग में डेरा पड़ जाता. घर घर होली गाने वाली मिरासिनें जनानी ड्योढी पहुंच गातीं,
वो तो यूं ही सखिन पीछे पड़े,
छोड़ो-छोड़ों री ग़ुइयां उनसे कौन लड़े,
एक तो हाथ कनक पिचकारी,
दूजे लिए संग, रंग के घड़े.
नवाबों के इस दौर में तवायफों की भी खूब धूम थी. नवाबों की सरपरस्ती थी. जाहिर है कि उनके शौक और पसंद का इन तवायफों को भी पूरा ख्याल था. नवाब आसफुद्दौला और नवाब सआदत अली खां के वक्त होली गाने में उजागर और दिलरुबा लाजबाव थीं. जाने आलम के समय जोहरा, मुश्तरी, मुंसरिमवाली गौहर और चूने वाली हैदरी ने इस सिलसिले को कायम रखा. शौकीन लोग ऐसे बंद आज भी दोहराते हैं,
नन्द लाल बिना कैसे खेलूं मैं फाग,
ऐसी होली में लग जाए आग,
मैं तो धोखे से देखन लागी उधर,
मोपे डार गयो कान्हा रंग की गगर.
जफर करते थे होली का बेकरारी से इंतजार
बेशक आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र कट्टर और क्रूर औरंगजेब के वंशज थे. लेकिन वो परिवार के अकबर और दारा शिकोह की परम्परा के उदार सूफी बादशाह थे. हिंदू त्योहारों में उनकी खूब दिलचस्पी और भागीदारी रहती थी. होली भी खेलते थे. उनकी इस आदत ने मौलवियों को ख़फा कर दिया था और वे उन्हें ‘बेदीन’ समझते थे. मौलवी कहते थे कि मुस्लिमों को उन मस्जिदों में नहीं जाना चाहिए, जिसमे बादशाह ज़फ़र जाते हैं या जिनकी सरपरस्ती करते हैं.
लाल किले की डायरी में दर्ज है कि ज़फ़र को होली के रंगों भरे त्योहार का बेकरारी से इंतजार रहता था. वे बहुत शौक से होली खेलते. दरबारियों,बेगमों और रखैलों को रंगों से भिगो देते और सबके साथ खूब मस्ती करते थे. इस जश्न की शुरुआत वे सात कुओं के पानी से नहाने के साथ करते. होली में बादशाह की दिलचस्पी दरबारियों के साथ शाही खानदान के लोगों को भी खूब उत्साहित करती. ये मौका ऐसा रहता कि दरबारी रवायतों का ख्याल रखते हुए भी रंगों और फूलों की बरसात और हंसी-ठहाकों के बीच तमाम बंधन टूट जाते थे.