“मोदी का सूफी प्रेम बीजेपी-संघ के लिए फायदेमंद, दिल्ली से पीएम देंगे मुस्लिमों को संदेश”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार शाम सूफी संगीत समारोह ‘जहान-ए-खुसरो’ के कार्यक्रम का उद्घाटन करेंगे. यह सूफी संत और कवि अमीर खुसरो की याद में किया जा रहा है. भले ही यह पहला मौका है जब पीएम मोदी ‘जहान-ए-खुसरो’ कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हों, लेकिन सूफीवाद के साथ उनका लगाव काफी पुराना है. इतना ही नहीं बीजेपी और संघ हमेशा से ही देश में सूफी परंपरा को आगे बढ़ाने की बात करता रहा है. ऐसे में पीएम मोदी दिल्ली से एक बार फिर सूफीवाद को बढ़ावा देने और देश के मुस्लिमों को सियासी संदेश देने की कवायद करेंगे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार शाम सूफी संगीत समारोह ‘जहान-ए-खुसरो’ के कार्यक्रम का उद्घाटन करेंगे. यह सूफी संत और कवि अमीर खुसरो की याद में किया जा रहा है. भले ही यह पहला मौका है जब पीएम मोदी ‘जहान-ए-खुसरो’ कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हों, लेकिन सूफीवाद के साथ उनका लगाव काफी पुराना है. इतना ही नहीं बीजेपी और संघ हमेशा से ही देश में सूफी परंपरा को आगे बढ़ाने की बात करता रहा है. ऐसे में पीएम मोदी दिल्ली से एक बार फिर सूफीवाद को बढ़ावा देने और देश के मुस्लिमों को सियासी संदेश देने की कवायद करेंगे.

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नई दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित सुंदर नर्सरी में ‘जहान-ए-खुसरो’ का कार्यक्रम तीन दिन चलेगा. जहान-ए-खुसरो- सूफी संगीत, कविता और नृत्य को समर्पित एक अंतरराष्ट्रीय महोत्सव है. अमीर खुसरो की विरासत का जश्न मनाने के लिए दुनिया भर के कलाकार शामिल होंगे. यह रूमी फाउंडेशन द्वारा आयोजित किया जाता है, जिसे 2001 में प्रसिद्ध फिल्म निर्माता और कलाकार मुजफ्फर अली ने शुरू किया था.

अमीर खुसरो हिंदी खड़ी बोली के सूफी कवि थे और फारसी में उन्होंने सूफीमत की कविताएं लिखी हैं. अमीर खुसरो ने अपनी संगीत और कविता में देश की गंगा-जमुनी तहजीब को हमेशा आगे रखा, जिसका उद्देश्य सामाजिक-सांस्कृतिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता को पिरोना था. अमीर खुसरो की याद में होने वाले कार्यक्रम में पीएम मोदी शामिल होकर देश के मुसलमानों को एक बड़ा संदेश देने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना चाहते हैं.

पीएम मोदी का सूफीवाद से प्रेम

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पीएम मोदी का सूफी परंपरा के साथ लगाव काफी पहले से है. नरेंद्र मोदी का हमेशा से मानना रहा है कि सूफीवाद को बढ़ावा देने से साम्प्रदायिक तनाव खत्म करने में मदद मिलेगी. इस बात को वे गुजरात के सीएम रहते हुए और पीएम बनने के बाद भी करते रहे हैं. 2014 में देश की सत्ता पर विराजमान होने के बाद पीएम मोदी ने मुसलमानों के किसी प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की थी, तो वो सूफी परंपरा से जुड़े हुए लोग थे.27 अगस्त 2015 को देश भर के 40 सूफी रहनुमाओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी. इस दौरान प्रतिनिधिमंडल ने भारत में सूफी विचारधारा और सूफी संस्कृति को प्रोत्साहन देने और भारत में सूफी मजारों और स्थलों के जीर्णोद्धार सहित कई सुझाव दिए थे.

सूफी प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात के तीन दिन बाद 30 अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में सूफीवाद के जरिए मुस्लिम समुदाय तक पहुंचने की कोशिश की. उन्होंने सूफी परंपरा को प्रेम व उदारता से जुड़ा हुआ बताते हुए कहा था कि सूफी संतों की विचारधारा भारतीय संस्कृति का आंतरिक अंग है और इसने भारत में बहुलवादी, बहु-सांस्कृतिक समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान किया है. इसके बाद 2015 में ही पीएम मोदी ने अपने लंदन दौरे पर भी सूफी परंपरा का जिक्र किया था.

दुनिया के सामने मोदी ने रखा सूफीवाद

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पीएम मोदी ने मार्च 2016 में दिल्ली के विज्ञान भवन में विश्व सूफी फोरम का उद्घाटन किया था. इस कार्यक्रम में दुनिया के 20 देशों के सूफीवाद से जुड़े हुए करीब 200 लोगों ने शिरकत की था, जिनके बीच पीएम मोदी ने कहा था,’इस्लाम अमन का पैगाम देता है, सूफीवाद उसकी आवाज है. इस्लाम का असली मतलब ही शांति है.

जब हम अल्लाह के 99 नामों के बारे में सोचते हैं, कोई भी हिंसा से जुड़ा नहीं है. खुदा की सेवा का मतलब भगवान की सेवा है.’ इस दौरान मोदी ने कहा था कि आतंकवाद को इस्लाम से नहीं जोड़ा जा सकता है. उन्होंने कहा था हम ईश्वर को प्यार करते हैं तो हमें उनके बनाए सभी लोगों से भी प्यार करना चाहिए. हजरत निजामुद्दीन औलिया और बुल्ले शाह ने यही संदेश दिया है कि ईश्वर सभी के दिल में रहता है.

पीएम मोदी ने कहा था कि दुनिया को हिंसा और आंतक की छाया ने घेर रखा है. ऐसे अंधेरे माहौल में सूफीवाद एक उम्मीद का नूर है. इजिप्ट और वेस्ट एशिया में अपने उदय के बाद से ही सूफीज्म ने पूरी दुनिया में शांति और मानवता का मैसेज दिया है. सूफीवाद भाईचारे का संदेश देता है. अल्लाह इज रहमान एंड रहीम, यह विचारधारा भेदभाव करना नहीं सिखाती.

पीएम मोदी ने सूफी पंथ से जुड़ी महान हस्तियों बुल्ले शाह, अमीर खुसरो, हजरत निजामुद्दीन औलिया और बाबा फरीद को याद करते हुए कहा था कि सूफी पंथ से जुड़े इन संतों ने मानवता से प्रेम करने का मंत्र दिया. सूफीवाद इस्लाम के दुनिया के सबसे अहम योगदान में से एक है और सूफी विचार भारत में तो इस्लाम का चेहरा है. पीएम मोदी ने साफ संदेश दिया था कि सूफीवाद को बढ़ावा देने से साम्प्रदायिक तनाव खत्म करने में मदद मिलेगी.

हर साल मोदी अजमेर भेजते हैं चादर
प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी ने हर साल अजमेर शरीफ में ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ाने के लिए खास चादर भेजते हैं. ये चादर उर्स के मौके पर दरगाह पर चढ़ाई जाती है. भारत के प्रधानमंत्रियों की ओर से अजमेर दरगाह में चादर भेजने की पुरानी परंपरा रही है, 2014 से ही मोदी उसका पालन कर रहे हैं.

पीएम मोदी के द्वारा भेजी जाने वाली चादर पहले दिल्ली के निजामुद्दीन दरगाह जाती है. उसके बाद दिल्ली के महरौली में हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर जाती है. फिर अजमेर में ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार पर चढ़ाई जाती है. भारत में सूफीवाद की परंपरा को मोइनुद्दीन चिश्ती ने शुरू किया. इसके अलावा सूफी पंथ के कवि कबीर दास की मजार पर सीएम योगी के साथ पीएम मोदी ने दौरा किया था.

बीजेपी-संघ को भाता सूफीवाद
बीजेपी और आरएसएस हमेशा से ही देश सूफी परंपरा को आगे बढ़ाने की बात करता रहा है. सूफीवाद धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा नहीं देता बल्कि, देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब (संस्कृति) की तहज़ीब को बढ़ाने का काम सूफीवाद ने किया, जहां हिंदू-मुस्लिम परंपराओं का समागम होता था. ये अमीर खुसरो के समय में शुरु हुई थी. सूफी संतों की विचारधारा भारतीय संस्कृति का आंतरिक अंग है, जिसने भारत में बहुलवादी, बहु-सांस्कृतिक समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान किया है.

सूफीवाद की धार्मिक परंपराएं हिंदू धर्म से काफी मिलती-जुलती है. इस्लाम में कट्टरपंथी, जहां गीत और संगीत को गलत मानते हैं और उसकी मनाही करते हैं, लेकिन सूफी परंपरा में गीत-संगीत का पूरा पालन किया गया है. सूफीवाद से जुड़े हुए लोग बसंत भी मनाते हैं और होली के त्योहार में रंग भी खेलते हैं. बीजेपी और संघ चाहता है कि मुसलमान भी भारतीय पंरपरा के साथ और कट्टरपंथ से दूर रहें. इस लिहाज से सूफी परंपरा से जुड़े हुए लोग उनके ज्यादा करीब नजर आते हैं.

सूफीवाद पर मोदी मेहरबान
नरेंद्र मोदी जब गुजरात में मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने सूबे में सूफीवाद से जुड़े हुए मुसलमानों को ही सत्ता सुख दिया था. प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने सूफीवाद से जुड़े हुए लोगों की अहमियत दी है. इसके अलावा कई राज्य में भाजपा की सरकारें हैं वहां हज कमेटी से लेकर वक्फ बोर्ड तक ज्यादातर सूफी और बरेलवी फिरके जुड़े लोग काबिज हैं.

देश के करीब 20 करोड़ मुसलमानों पर किसी एक मुस्लिम रहनुमा और एक मुस्लिम तंजीम का एकाधिकार नहीं है, जिसके पीछे वे चलें, बल्कि भारतीय मुस्लिम समुदाय अलग-अलग फिरकों (संप्रदायों) में बंटा हुआ है. ऐसे में भारत के मुस्लिमों का कोई एक रहनुमा नहीं है, बल्कि अलग-अलग फिरकों के अलग-अलग रहनुमा हैं, जो अपने-अपने फिरके के मानने वालों की रहनुमाई करने का दम भरते हैं.

मोदी सरकार आने से पहले तक देवबंदी फिरके से ताल्लुक रखने वाले मौलाना और उनकी तंजीमें सत्ता सुख उठा रही थीं. इस फेहरिश्त में जामा मस्जिम के शाही इमाम अहमद बुखारी, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, मिल्ली काउंसिल, सहित तमाम मुस्लिम संगठन हैं, जिनके नेतृत्व देवबंदी या वहाबी फिरकों के हाथों में हैं. ये मुस्लिम संगठन सांप्रदायिकता का खौफ दिखाकर बीजेपी के खिलाफ और कांग्रेस, सपा, आरजेडी सहित तमाम राजनीतिक दलों के साथ गलबहियां करते रहे हैं.

यूपीए सरकार के सत्ता से बेदखल होने के बाद तथाकथित मुस्लिम रहनुमाओं और तंजीमों की सियासी दखलअंदाजी भी खत्म हो गई है, क्योंकि चुनाव के दौरान ये मुस्लिम तंजीमें और रहनुमा नरेंद्र मोदी के खिलाफ आवाज बुलंद कर कहते रहे कि मोदी को सत्ता में आने से रोकें. अब जब पीएम मोदी देश की सत्ता में हैं तो उन्होंने हाशिए पर पड़े सूफीवाद और बरेलवी मुस्लिमों को सियासी अहमियत देना शुरू किया. जामिया वीसी से लेकर हज कमेटी और दूसरे पदों पर सूफीवाद से जुड़े हुए लोगों की जगह दी.

सूफी परंपरा से जुड़े हिंदू-मुस्लिम
सूफी परंपरा का और सूफी संत का मेलजोल साधारण हिन्दू जनता से था. इसी का परिणाम था कि वे हिन्दुओं के रीतिरिवाज संस्कार, पर्वत्याहारों को नजदीक से देखा. उन्होंने गंगाजमुनी तहजीब को बल प्रदान करने के लिए मुसलमानों के साथसाथ हिन्दुओं के लिए भी कविताएं लिखी. हिन्दुओं पर उनकी कविता का साकारात्मक प्रभाव पड़ा, वे मुसलमान भाईयों के कुछ और करीब आए, साम्प्रदायिक सौहार्द मजबूत हुआ.

सूफी परंपरा को मानने वालों सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोग नहीं है दूसरे धर्मों के लोग भी शामिल हैं. Pew research 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर भारत के 37 फीसदी मुसलमान खुद को सूफी मानते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर 6 फीसदी लोग सूफी परंपरा को मानते हैं. इस्लाम से आये सूफी मत को मानने वालों में अब भी सबसे ज्यादा मुस्लिम ही हैं, जिनकी हिस्सेदारी 11 फीसदी.

मुस्लिम समुदाय के बाद 9 फीसदी सिख और 5 फीसदी सूफी मत मानने वाले हिंदू भी हैं. दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्र चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सूफी मतावलंबियों की तादाद सबसे ज्यादा है. रिपोर्ट के अनुसार, यहां सबसे ज्यादा 37 फीसदी सूफी मत मानने वाले लोग हैं, जिनमें 7 फीसदी चिश्तिया और 12 फीसदी कादरिया मत को मानते हैं. हिंदुओं में भी 6 फीसदी चिश्तिया सहित 12 फीसदी लोग उत्तर भारत में बतौर सूफी मतावलंबी अपनी पहचान पेश करते हैं, और 10 फीसदी सिख भी सूफी मत मानने वाले हैं.

अमीर खुसरे की आज भी प्रासंगिकता
सूफी परंपरा से जुड़े रहे अमीर खुसरो की प्रासंगिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मरने के करीब 700 साल बाद भी उनकी लोकप्रिय नज्में राहत फतह अली खान और आबिदा परवीन के द्वारा अक्सर चुनी जाती है. सोशल मीडिया के आने के बाद सूफीवाद को बढ़ावा काफी मिला है. सूफी संत और गायकों की न सिर्फ भारत और पाकिस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में इज्जत है. सूफी गीत-संगीत कभी किसी एक धर्म के दायरे में बंधे नहीं रहे, बल्कि हर धर्म ने उन्हें बराबरी से अपनाया.

अमीर खुसरो हों या बाबा बुल्ले शाह हों, भारतीय उपमहाद्वीप में शायद ही कोई ऐसा शख्स हो जिसने इन मशहूर सूफी संतों के नाम न सुने हों. गुजरे वक्त में दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले बादशाह भले ही बदल गए हों, लेकिन इन सूफी संतों की विरासत ज्यों की त्यों न सिर्फ बरकरार रही बल्कि, इनकी लोकप्रियता वक्त के साथ बढ़ती गई.

दक्षिण एशिया में अमीर खुसरो का कलाम सिर्फ दरगाहों पर क़व्वालियों के रुप में ही नहीं सुना जाता है बल्कि, आज सोशल मीडिया और संगीत समारोह में भी उतने ही शौक़ से लोग उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को सुनते हैं. पीएम मोदी इस आपसी मेलजोल और ईश्वर तक पहुंचने की इस खूबसूरत विधा को बढ़ावा देने के लिए सूफीवाद से जुड़े कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हैं.

मुसमलानों को देंगे मोदी संदेश
पीएम मोदी सूफीवाद के जरिए देश के मुसलमानों को सियासी संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं, जिस तरह से उन्होंने समय-समय पर सूफी परंपरा को लेकर अपनी बात रखते रहे हैं. पीएम मोदी ने खुद एक बार कहा था कि वह सूफी धारा से बहुत अधिक प्रभावित हैं और सूचना-प्रसारण मंत्रालय को भी सूफी धारा को महत्व देने के निर्देश दे दिए थे. वैसे आम धारणा बीजेपी को ध्रुवीकरण कराने वाली पार्टी मानने की है, लेकिन प्रधानमंत्री का मानना है कि सूफीवाद को बढ़ावा देने से साम्प्रदायिक तनाव खत्म करने में मदद मिलेगी.

पश्चिम बंगाल, असम और केरल के चुनावों के संदर्भ में भी इसे जोड़कर देखा जा रहा है,जहां बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाता हैं. यह बहुत महत्वपूर्ण यह है कि असम और बंगाल में सूफी परंपरा से जुड़े हुए मुसलमानों की संख्या काफी है. तीसरी बार देश की सत्ता पर विराजमान नरेंद्र मोदी दिल्ली से देश के मुसमलानों को सियासी संदेश देने की रणनीति बनाई है.

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